जब राजीव गांधी के 'बोफोर्स' के सामने तोप बनकर खड़ा था विपक्ष, 106 सांसदों ने दिया था इस्तीफा

आज से 30 साल पहले एक तोप ने लोकसभा में पूरे विपक्ष को एकजुट कर दिया था. वह भी तब, जब विपक्ष का कोई नेता नहीं था. जैसा आज है. अघोषित रूप से विपक्ष का नेता सत्ता पक्ष का एक मंत्री बन गया था. उसी के बाद विपक्ष के 110 सांसदों में से 106 सासंदों ने इस्तीफा दे दिया था. भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे मौके में बेहद कम होंगे जब विपक्ष ने ऐसी मजबूत एकता दिखाई हो.

बात 30 साल पहले की है, यानी 24 जून 1989 को जब एक तोप ने लोकसभा में पूरे विपक्ष को एकजुट कर दिया था. वह भी तब जब विपक्ष का कोई नेता नहीं था. सत्ता पक्ष का एक मंत्री अघोषित रूप से विपक्ष का नेता बन गया था. उसी के बाद विपक्ष के 110 सांसदों में से 106 ने इस्तीफा दे दिया था. यह दिन भारतीय राजनीति और खास तौर पर कांग्रेस के लिए भूचाल लाने वाला साबित हुआ. मामला 1437 करोड़ रुपए के बोफोर्स घोटाले का था. जिसमें स्वीडन की कंपनी एबी बोफोर्स और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार के साथ 155 मिमी के 400 हॉविट्जर तोपों का सौदा हुआ था.

1986 में हुए बोफोर्स डील में दलाली और भ्रष्टाचार का खुलासा 1987 में स्वीडिश रेडियो ने किया. आरोप था कि कंपनी ने सौदे के लिए भारत के नेताओं और रक्षा विभाग के अधिकारी को 60 करोड़ रुपए घूस दिए हैं. अपनी ईमानदार छवि से रत्तीभर भी समझौता न करने वाले तत्कालीन रक्षामंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस स्कैंडल को सार्वजानिक कर दिया था. इसके बाद विपक्ष की एकजुटता से 404 सीटें जीतकर आई कांग्रेस की पूर्ण बहुमत वाली सरकार की जड़ें तक हिल गई थीं.

उस समय, 514 सीटों वाली लोकसभा में विपक्ष के केवल 110 सांसद थे, इनमें विशेष रूप से बीजेपी के (मात्र) 2, जनता पार्टी के 10, वामपंथी 22, तेलगू देशम 30, एआईएडीएमके के 12 प्रमुख थे. 106 विपक्षी सांसदों ने इस्तीफा दिया था. यहां विपक्ष की मजबूती के साथ ही सत्ता की कमजोरी भी निकल कर सामने आई. क्योंकि विपक्ष की एकता के हीरो वीपी सिंह थे, जो सत्ता से निकल कर सामने आए थे. तब भाजपा के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि हम तोप को लेकर हुए भ्रष्टाचार का भरपूर विरोध करेंगे.

1989 में ही चुनाव होने वाले थे. राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार के दोबारा चुनाव जीतने की पूरी उम्मीद थी, लेकिन अचानक से समय बदला, राजनीति बदल गई. लेकिन विपक्ष के एकसाथ आने से पासा पलट गया. उस समय विपक्ष के पास कोई नेता नहीं था, लेकिन सबने मिलकर एकता दिखाई और सत्ता पक्ष की नाक में दम कर दिया था.  

नेहरू और इंदिरा के समय भी नहीं था विपक्ष के नेता  

24 जून 1989 की घटना छोड़ दे तो पिछले 70 वर्षों में कभी भी मजबूत विपक्ष नहीं बन सका. हमेशा कमजोर विपक्ष ही दिखाई पड़ा.आज भी देश में विपक्ष जैसी चीज नजर नहीं आती. 2014 के चुनावों के बाद नेता विपक्ष बनाने के लिए भी किसी दल के पास संख्या नहीं थी. विपक्ष के नेता के लिए जरूरी है कि किसी दल के पास कम से कम 10% (55 सांसद) हों. लेकिन कांग्रेस के सिर्फ 44 सांसद ही थे. जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में कभी कोई विपक्षी नेता नहीं रहा. क्योंकि कोई दल 10% की संख्या हासिल नहीं कर सका. इंदिरा गांधी के वक्त भी लंबे समय तक संसद में कोई विपक्षी-नेता नहीं रहा.