फिलहाल नहीं जा सकतीं इसलिए ब्रह्मपुत्र के ऊपर से होकर गुजरना ही एकमात्र रास्ता है.

आपदा इतनी बड़ी है कि मदद के लिए प्रशासन के भी हाथ-पैर फूल रहे हैं. सर्कल ऑफिसर सूरज कमल बरुवा बताते हैं की बाढ़ के चलते सड़कों पर राहत सामग्री ले जाने वाली गाड़ियां फिलहाल नहीं जा सकतीं इसलिए ब्रह्मपुत्र के ऊपर से होकर गुजरना ही एकमात्र रास्ता है.

जैसे ही ब्रह्मपुत्र नदी का कलेजा चीरते हुए नाव आगे बढ़ी. ब्रह्मपुत्र का विस्तार अथाह होता चला गया. साल के 8 महीने यह नदी असम की लाइफ लाइन होती है. लेकिन मॉनसून के 4 महीनों में ये जिंदगियों को अपनी चपेट में ले लेती है. ब्रह्मा का पुत्र कही जाने वाली इस नदी के साथ असम की संस्कृति और सभ्यता जुड़ी है. इस नदी के साथ भूपेन हजारिका का रिश्ता जुड़ा है. लेकिन महाप्रलय की इस घड़ी में इस नदी ने हर किसी से अपना रिश्ता मानो तोड़ लिया है.

ब्रह्मपुत्र की विकराल धारा कुछ दूर पार करने के बाद जब नाव एक दिशा में आगे बढ़ी तो मंजर डरावना होता चला गया. गांव के गांव जलमग्न दिखाई पड़े. ऊंचे इलाकों में जानवरों ने शरण ले रखी है तो निचले इलाकों में दुकान-मकान सब जलमग्न हैं. कहां सड़क है कहां जमीन अंदाजा भी लगाना मुश्किल है. ब्रह्मपुत्र ने इतना भयावह रूप अख्तियार किया है जिसके चलते कुछ भी नहीं बचा. बर्बादी का मंजर चारों तरफ नजर आ रहा है.

एक लंबा सफर तय करने के बाद पूर्वी जोरहाट में ब्रह्मपुत्र नदी से कुछ दूरी पर आज तक की टीम हाथी खाल गांव पहुंची. मूल 23 गांव में उत्तर भारत के प्रवासी और असम की जनजातियां रहती हैं. बाढ़ के चलते इनका गांव किसी टापू में तब्दील हो गया है जो चारों तरफ से पानी से घिरा है. ऐसे में यहां रहने वाले न खेती कर सकते हैं न ही शहरों तक जा सकते हैं. सरकार की ओर से राशन की बड़ी खेप गांव तक लाई गई है.

महाप्रलय की तस्वीरों को अपने कैमरे में कैद करने के साथ ही आज तक की टीम ने अपनी एक छोटी सी जिम्मेदारी भी निभाई. आज तक की ओर से केयर टुडे की पहल पर वहां की महिलाओं और बच्चों के लिए कुछ राहत सामग्री प्रदान करने की कोशिश की गई. रिपोर्टिंग के साथ मदद की इस छोटी सी कोशिश में प्रशासन भी मददगार रहा. खाने-पीने की चीजें बच्चों के चेहरे पर मुस्कान ले आईं तो मास्क, सैनिटाइजर और सैनिटरी नैपकिन उन महिलाओं के लिए बड़ी मदद साबित हुए जो न जाने अगले कितने दिनों तक सड़कें डूब जाने की वजह से शहरों से और बुनियादी सुविधाओं से वंचित रहेंगी.

बाढ़ से बेबस चेहरे और मजबूरी की कई कहानियां उस गांव में हैं. प्रवासियों ने आज तक से अपनी व्यथा सुनाते हुए कहा कि अगर इमरजेंसी हो जाए तो जोरहाट में नाव से पहुंचने में ही 2 से ढाई घंटे का समय लग जाता है. हर कोई दहशत के साए में जी रहा है.

आज तक की टीम का अगला ठिकाना था माजरा सापोर गांव. इन इलाकों में असम की मिसिंग जनजाति बड़ी तादाद में रहती है. पारंपरिक रूप से इनके घर जमीन से 10 से 12 फीट ऊंचे ही बनाए जाते हैं लेकिन पानी इस बार घर की चौखट तक दस्तक दे चुका है. मदद के थोड़े से सामान के साथ आज तक की टीम ने छोटी सी नाव लेकर मिसिंग जनजातियों के गांव में पहुंचने की कोशिश की.

छोटे-छोटे बच्चे गांव के एक तरफ से दूसरी तरफ जाने के लिए नाव का इस्तेमाल करते दिखाई दिए. जाहिर है नदी के तेज प्रवाह में उनकी जिंदगी भी खतरे में है. जान जोखिम में डालकर यहां जिंदगी रोजमर्रा के लिए साधन जुटाती है. मिसिंग जनजातियों के गांव माजरा सापोर में कुदरत के कहर की तस्वीर डराने लगती है. यह हाल तब है जब ब्रह्मपुत्र का पानी काफी हद तक उतर गया है. लोग बताते हैं कि जब पानी अंदर आया तो जमीन से ऊंचे बने उनके घर के फर्श तक को छूने लगा था.

मिसिंग जनजाति की महिलाओं ने आज तक को बताया कि बाढ़ के पानी के चलते उनके सामने पीने का पानी की कमी सबसे बड़ी समस्या बन गई है. बाढ़ की वजह से गांव का नल और कुआं जलमग्न हो गए हैं. यह लोग इसी बाढ़ के पानी को साफ करके पीते हैं.‌

मदद की सामग्री आज तक की टीम ने गांव के लोगों को सौंप दी. एक छोटी सी कोशिश से उनके चेहरे पर जो मुस्कुराहट आई उसका कोई मोल नहीं. लेकिन तस्वीर इतनी भयावह है जो चीख-चीख कर कहती है कि सरकार को मदद का दायरा बढ़ाना होगा क्योंकि इस बार आपदा हर साल से बड़ी है.