स्मृति शेष अभय अशोक सर्वटे : क्यों बे पगार कितनी है तेरी ?

ग्वालियर में तक़रीबन 17-18 साल पहले अपने पत्रकारिता के कैरियर की शुरुआत स्वदेश से की थी। शुरुआत से ही अपन लाल रंग की रॉयल एनफिल्ड लेकर नौकरी करने जाते थे। एक आदमी छाती तक दाढ़ी बढ़ाएँ स्वदेश परिसर में अक्सर दिखता था। बताया गया ये पूरा मैनेजमेंट देखते है, नाम है अभय अशोक सर्वटे। रँगमंच से भी जुड़े हैं और शिवाजी का रोल करने के लिेए दाढ़ी बढ़ा रखी है। दो महिने तक मेरी उनसे कोई मुलाक़ात नहीं हुई।एक दिन दोपहर के समय ऑफिस आए, नीम के पेड के नीचे हनुमान जी के मंदिर पर माथा टेका और बाहर खड़े थे। मुझे देखने उँगली दिखाकर बुलाया, ओए इधर आ। ठीक वैसे जैसे कॉलेज में कोई सीनियर अपने जूनियर को बुलाता है। मैं थोड़ा संकोच कर के गया। मुझसे पूछते हैं ... क्यो बे तेरी पगार कितनी है ? मैंने कहा अभी लगी नही। तो दूसरा सवाल- ये बुलट कैसे मेंटेन करता है ? बड़ा असहज लगा, लेकिन पूरा बायोडाटा लेने के बाद कहते है, कौन के कहने पर पत्रकारिता करने आया है ? मैं जैसे तैसे जवाब दिये और निकल गया। इसके बाद दुआ सलाम शुरु हुई और स्वदेश के ढाई साल के कैरियर में मेरी उनकी जमकर पटी। नईदुनिया भी आया तो यहाँ काम निपटा कि नही अभय जी और हम अख़बार छोड़ने तक साथ ही रहते थे।
मैं अक्सर कहता यहाँ स्वदेश में मुझसे पेस्टींग ( पेज सेट कराने) के लिेए रात में ड्यूटी लगाते है। तो अभय जी का जवाब होता था तो तुम मक्कारी करने आए हो । अपना चुपचाप काम सीखता रहे। अच्छी खबरो पर दिल खोलकर शाबाशी देते थे। और जब उतारने पर आते तो रहम नहीं करते थे।
उनकी मोबाइल पर हैलो की बजाय धमाकेदार गाली से होती थी। समझते देर नहीं लगती थी कि दूसरी और से गाली देने वाला मेरा एक ही है बस। उनकी गाली सदैव प्रेम और अपनापन लिए का भाव से परिपूर्ण थी। पीपुल्स समाचार गए तो मुझे भी जॉइन कराया। इसके बाद दैनिक भास्कर भोपाल, सकाल पुणे फिर अमर उजाला आगरा के यूनिट हेड रहे। इनसे मेरा संवाद निरंतर रहता था।
ग़ज़ब का यारबाज आदमी था। बेहद पढ़ा लिखा युवा जिसमें जीवन के कई महत्वपूर्ण वर्ष संघ और स्वदेश को दिये। उसे तकनीकी तौर पर सक्षम बनाने में अभय जी का ही योगदान रहा।
सांध्यवार्ता शुरु किया तो हॉकर्स के साथ तारघर में क्रिकेट खेलते थे। खाना दोपहर का प्रिंटिंग मशीन में काम करने वाले बापू, कैप्टन और पुलपुल के टिफ़िन से होता था। उन्हें देखकर हैरत होती थी इतना पढ़ा लिखा और उच्च पद पर बैठा व्यक्ति इतना सहज हो सकता है कभी ! मैंने उनको अपने जीवन में काफ़ी आत्मसात् किया। घर पर टाटा सूमो खड़ी रहती थी और आते टेम्पो से थे।
आज उनको मुक्तिधाम में अपने कंधे पर लेकर जा रहा था तो सोच रहा था कि अभय जी को कभी अपनी बुलट पर बैठकर घुमाता था। कभी निराश होता तो अक्सर कहते थे लुगाइयो जैसे रोया मत कराकर बात बात पर। आज हक़ीक़त में शमशान में ज़रा भी नही रोयाँ । घर आकर नहाने गया तो ऑंखें ग़द्दारी कर गई।
आगरा में रहते हुए जब उन्हें चार साल पहले मुँह का कैंसर हुआ तो घर में किसी को बताया नही। खुद ही ऑपरेशन कराया और काम करते रहें। बेहद तकलीफ़ भरी कीमो थेरेपी लेकर ऑफिस में काम करते थे। घर में पता चली तो कैंसर नहीं बताया , बोले दाड़ का इलाज चल रहा है। उनकी सोच थी बुजुर्ग मॉ बाप व पत्नी बेटियों को ये परेशानी कैसे साझा करुं ! उन्हें परेशानी बताते कभी नहीं देखा, अक्सर दूसरों की परेशानी मिटाते देखा। जीवटता भरी ज़िंदगी की इस लड़ाई में कैंसर से फिर भी नहीं हारे, कल उन्हें हार्ट अटैक आया और अचानक चल बसे। दिवाली पर मैंने उन्हें बधाई दी थी।कल उनका पार्थिव शरीर देख विचलित हो गया।
घर में बुजुर्ग मॉ बाप, बहन, भाभी और दो बच्चियाँ पीछे छोड़ गए है। आख़िरी समय में अमर उजाला से जुड़े थे। अमर उजाला प्रबंधन ने उनके इस बुरे समय में बहुत साथ दिया। उसके लिेए दिल से आभार। मेरे जीवन के बहुत ही शानदार किरदार अभय जी आप हमेशा यादों में ज़िंदा रहोगे।
-अर्पण राउत,ग्वालियर
महिमा एक्सप्रेस की ओर से आपको विन्रम श्रद्धांजलि शत शत नमन