राहुल गांधी की न्यूनतम आय गारंटी योजना पर जानिए क्या है अर्थशास्त्रियों की राय

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव से पहले बड़ा दांव खेलते हुए देश के सबसे गरीब 20 फीसदी लोगों के लिए न्यूनतम आय सुनिश्चित करने का ऐलान किया है. इस योजना का नाम 'न्याय' रखा गया है जिसके तहत देश के सबसे गरीब 5 करोड़ परिवारों को 72000 रुपये सालाना दिए जाने की घोषणा की गई है. इस लिहाज से इस योजना पर 3.60 लाख करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है. कांग्रेस की इस घोषणा के बाद यह बहस छिड़ी है कि इस योजना को चलाने के लिए इतनी बड़ी रकम कहां से आएगी और इसका देश की अर्थव्यवस्था पर कैसा प्रभाव पड़ेगा?

कांग्रेस की घोषणा पर टिप्पणी करते हुए नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने कहा, '2008 में तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिंदबरम वित्तीय घाटे को 2.5 फीसदी से बढ़ाकर 6 फीसदी तक ले गए. यह घोषणा उसी पैटर्न पर आगे बढ़ने जैसा है. राहुल गांधी अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले इसके प्रभाव की चिंता किए बिना घोषणा कर बैठे. अगर यह स्कीम लागू होती है तो हम चार कदम और पीछे चले जाएंगे.' हालांकि कांग्रेस पार्टी का कहना है कि यह योजना बजट न्यूट्रल (बजट न्यूट्रल वो अवधारणा है जिसमें किसी योजना का प्रभाव बजट पर नहीं पड़ता) होगी और वित्तीय घाटे को ध्यान में रखते हुए तैयार की जाएगी.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और विकास अर्थशास्त्री, जयति घोष का कहना है कि 'न्याय' योजना के बजट न्यूट्रल होने का अभिप्राय है कि अन्य योजनाओं में से कटौती कर इस योजना को फंड किया जाएगा. तो पहला सवाल तो यही है कि कांग्रेस को यह स्पष्ट करना चाहिए कि वो किन योजनाओं में कटौती करने जा रही है? दूसरी सबसे बड़ी बाधा यह पता लगाना है कि किसकी आमदनी क्या है, क्योंकि लोग योजना के बारे में जानते ही अपनी आय छिपाने लगेंगे. तीसरी चुनौती यह है कि जब बिना काम किए को पैसे मिलने लगेंगे तो लोग काम ही क्यों करेंगे? चौथा यह कि जो पैसा सरकार देगी उसे बेहतर तरीके से कैसे खर्च किया जाए? पांचवां यह कि योजना के लिए पैसा कहां से आएगा?

प्रोफेसर जयति घोष कहती हैं कि बेहतर होता कि कांग्रेस पार्टी सार्वजनिक सेवाएं-स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण इत्यादि जैसी सुविधाएं सबके लिए सुलभ करने की बात करती. इसके साथ ही ग्रामीण और शहरी वयस्कों को रोजगार की गारंटी का वादा करती और जो किन्हीं कारणों से काम नहीं कर पा रहे उन्हें पेंशन देती. इन तीन कदमों से न्यूनतम आय की गारंटी सुनिश्चित हो सकती थी. हालांकि, जयति घोष का मानना है कि इस योजना की घोषणा से छिड़ी बहस से यह तो स्पष्ट हो गया है कि सिर्फ आर्थिक वृद्धि होने से सब कुछ ठीक हो जाएगा, यह अवधारणा कोरी बकवास थी.

न्याय योजना को लेकर छिड़ी बहस में सबसे बड़ा सवाल है कि योजना के लिए पैसा कहां से आएगा और वित्तीय घाटे पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अरुण कुमार का कहना है कि इस योजना पर खर्च होने वाला 3.60 लाख करोड़ हमारी जीडीपी का 1.8 फीसदी है. अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति होगी तो हमारी अर्थव्यवस्था से इतना पैसा निकाला जा सकता है. नोटबंदी और जीएसटी का अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा है और गरीबी गहराई है. इसकी चिंता सबको है. यही वजह रही कि केंद्र सरकार ने छोटे और सीमांत किसानों को सालाना 6000 रुपये की समर्थन राशि देने के लिए 75000 करोड़ की धोषणा अपने बजट में की.

जहां तक सवाल है कि 'न्याय' योजना के लिए पैसा कहां से आएगा, तो हमें ध्यान देना चाहिए कि अभी कुछ दिनों पहले यह रिपोर्ट आई थी कि देश के सबसे अमीर 9 लोगों के पास देश की 55 फीसदी वेल्थ है. आज की तारीख में भारत में 150 अरबपति हैं, जो जापान से भी ज्यादा है. जबकि जापान की परकैपिटा इनकम हम से 30 गुना है. इस लिहाज से देखा जाए तो देश में आर्थिक असमानता लगातार बढ़ी है. सरकार चाहे तो .5 फीसदी वेल्थ टैक्स लगाकर 1.50 लाख करोड़ रुपये इस योजना के लिए निकाल सकती है.

इसके अलावा प्रो. अरुण कुमार का कहना है कि टैक्स में छूट हमारी जीडीपी का 6 फीसदी यानी 5-6 लाख करोड़ रुपए है. इसे खत्म तो नहीं किया जा सकता लेकिन कुछ कम तो किया ही जा सकता है. केलकर कमेटी की रिपोर्ट में भी यही कहा गया था कि सरकार टैक्स रेट कम करे और टैक्स में छूट घटाए. ऐसा करने पर कम से कम 1 लाख करोड़ तो जुटाए ही जा सकते हैं. केंद्र सरकार ने पहले से ही गरीब किसानों के लिए 75000 करोड़ का प्रावधान कर रखा है, इसे भी इसमें शामिल किया जा सकता है. लिहाजा, अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो योजना के लिए पैसे जुटाए जा सकते हैं और इसका वित्तीय घाटे पर कोई प्रभाव भी नहीं पड़ेगा.

न्याय योजना से देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव के सवाल पर प्रोफेसर अरुण कुमार का कहना है कि इस योजना के लागू होने लोगों की क्रय शक्ति बढ़ेगी जिसकी वजह से थोड़ी बहुत महंगाई भी बढ़ सकती है. लेकिन इसका सकारात्मक प्रभाव यह पड़ेगा कि किसानों को उनकी फसल का सही दाम मिलना भी शुरू हो जाएगा जो अभी नहीं मिल रहा है. इसके साथ ही सुस्त पड़े छोटे-मझोले उद्योगों की गति भी बढ़ेगी. जिससे रोजगार भी बढ़ेगा और सरकार का टैक्स कलेक्शन भी बढ़ेगा.