कोरोना के बीच चीन में होने लगी फार्मा निर्यात रोकने की बात, देश में क्यों नहीं बन सकता API?

कोरोना वायरस के प्रकोप के बीच चीन की कई देशों से तल्खी बढ़ रही है. अब इस सूची में भारत भी शामिल हो गया है. भारत द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) नियमों में बदलाव से भड़के चीन की सरकारी मीडिया में यह माहौल बनाया जाने लगा है कि चीन हमारे देश में अपने फार्मा निर्यात को रोक सकता है. चीन से हमारे देश में फार्मा की बात करें तो सबसे ज्यादा दवाएं बनाने के लिए जरूरी एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट (API) आता है.

क्या होता है एपीआई

सबसे पहले यह जान लें कि एपीआई क्या होता है. इसका मतलब होता है एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट. वि​श्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार तैयार फार्मा उत्पाद यानी फॉर्मुलेशन के लिए इस्तेमाल होने वाले किसी भी पदार्थ को एपीआई कहते हैं. गौरतलब है कि एपीआई ही किसी दवा के बनाने का आधार होता है, जैसे क्रोसीन दवा के लिए एपीआई पैरासीटामॉल होता है. तो आपने यदि पैरासीटामॉल का एपीआई मंगा लिया, तो उसके आधार पर किसी भी नाम से तैयार दवाएं बनाकर उसे निर्यात कर सकते हैं. तैयार दवाएं बनाने की फैक्ट्री में ज्यादा निवेश करने की जरूरत नहीं होती है और इसे लगाना आसान होता है.

दुनिया का प्रमुख दवा उत्पादक है भारत

भारत में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी फार्मा इंडस्ट्री है. लेकिन भारत में एपीआई या बल्क ड्रग का करीब 85 फीसदी हिस्सा चीन से आता है. भारत हर साल करीब 2.5 अरब डॉलर के एपीआई का चीन से आयात करता है. भारत विश्व में सबसे बड़ा जेनेरिक दवाओं का निर्माता है.भारत से हर साल करीब 20 अरब डॉलर का फार्मा उत्पादों का निर्यात किया जाता है.

अनुमान के अनुसार भारत में जो भी एपीआई आयात होता है उसका करीब 90 फीसदी हिस्सा एंटीबायोटिक्स दवाएं बनाने में इस्तेमाल होता है.

लॉकडाउन की वजह से चीन से एपीआई निर्यात पर आने वाली अड़चन से ही भारतीय फार्मा इंडस्ट्री की हालत खराब हो गई थी, अब अगर चीन ने वास्तव में इसे रोक दिया तो क्या हालात हो सकते हैं, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.

यहां तक चेतावनी दी जा चुकी है कि चीनी एपीआई पर निर्भरता भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हो सकता है. इसके बावजूद इस सेक्टर में आत्मनिर्भर होने की भारत ने खास कोशिश नहीं की.

सात साल पहले बनी थी समिति

यूपीए सरकार ने साल 2013 में वीएम कटोच की अध्यक्षता में इस बारे में विचार के लिए एक समिति बनाई थी. समिति ने एक्सक्लूसिव पार्कों की स्थापना जैसे कई सुझाव दिए थे. इस बारे में साल 2017 में एक ड्राफ्ट पॉलिसी भी बनी, लेकिन उसके बाद अभी कोई प्रगति नहीं हुई.

क्या हैं समस्याएं

भारत का मैन्युफैक्चरिंग चीन के मुकाबले प्रतिस्पर्धी नहीं है. नब्बे के दशक तक हालत यह थी कि भारत एपीआई का निर्यात करता था. लेकिन इसके बाद चीन ने अपनी इंडस्ट्री को काफी सपोर्ट दिया और उसका काफी विकास हुआ. सस्ती बिजली, सस्ती जमीन, सस्ते लेबर आदि की बदौलत चीनी इंडस्ट्री छा गई और उसने अपने एपीआई की भारत में डंपिंग शुरू कर दी.

हिमाचल में फार्मा इंडस्ट्रियलिस्ट सतीश सिंगला कहते हैं, 'चीन में काफी बड़े प्लांट होते हैं और उनका प्रोडक्शन पैमाना काफी बड़ा होता है, जिसका हम मुकाबला नहीं कर सकते. वहां केंद्र और राज्य जैसे अलग नियम-कायदों की समस्या नहीं है. पिछले 25-30 साल में उन्होंने आज इस इंडस्ट्री में अपने को इतना बड़ा कर लिया है कि हम उनसे प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते.'

पर्यावरण के सख्त मानक

भारत में एपीआई इंडस्ट्री को प्रदूषण के सख्त मानकों से भी गुजरना पड़ता है. एपीआई को देश की 18 सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले इंडस्ट्री में से एक माना जाता है. इन सबकी वजह से भारतीय फार्मा इंडस्ट्री चीन से सस्ता एपीआई आयात करना ज्यादा मुनासिब समझती है.

इंडियन ड्र्रग मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के प्रेसिडेंट महेश दोशी कहते हैं, 'ये इंडस्ट्री अचानक नहीं खड़ी हो सकती. इसमें लंबा समय लगेगा, लेकिन हम कोशिश करें तो जरूर कर सकते हैं. चीन के पास कुछ प्लस पॉइंट हैं. वहां सस्ता कच्चा माल, लेबर, सस्ती जमीन इंडस्ट्री को मिलती है. पर्यावरण कानून आसान हैं. भारत में सबसे बड़ी समस्या यही है कि एपीआई को लेकर यहां पर्यावरण कानून बहुत सख्त है. इसके अलावा यहां जमीन अधिग्रहण भी एक बड़ी समस्या होती है.'

उन्होंने कहा, 'भारत में ऐसी कोई इंडस्ट्री खड़ी करने की प्रक्रिया काफी लंबी है. सरकार को पर्यावरण मानक आसान बनाने होंगे. चीन में बनने वाली एपीआई की लागत भारत से काफी कम होती है, चीन मे वहां बड़े पैमाने पर उत्पादन होती है, इसलिए लागत काफी कम आती है. इसलिए यहां की इंडस्ट्री इसे आयात करना ज्यादा मुनासिब समझती है.'

कच्चे माल की समस्या

चीनी एपीआई उद्योग गोभी जैसे सस्ते कच्चा माल का इस्तेमाल करता है, जबकि भारत में ग्लूकोज और लैक्टोज का इस्तेमाल किय जाता है. इसकी वजह यह है कि भारतीय इंडस्ट्री फर्मन्टेंशन टेक्नोलॉजी के ​इसके लिए जरूरी महंगे बायो रिएक्टर लगाने में सक्षम नहीं है. इसके अलावा भारतीय दवा उद्योग रिसर्च एवं विकास पर बहुत ज्यादा खर्च करने में दिलचस्पी नहीं लेता.

क्या है संकट

भारत की बड़ी फार्मा कंपनियां जेनेरिक दवाएं बनाने और उनके निर्यात करने के चलते हर साल अरबों रुपया कमाती हैं. इन कपनियों ने साल 2019 में दो सौ से अधिक देशों को जेनेरिक दवाएं निर्यात किया था. लेकिन चीन से एपीआई ना मिले तो हमारी बड़ी से बड़ी फार्मा कंपनियों को पसीना आ जाता है.

चीन में कोरोना वायरस फैलने की वजह से इन कंपनियों को एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है था. इसकी वजह से इनका उत्पादन घट गया और हालत खराब होने लगी. इनके काफी दबाव के बाद चीन से एपीआई का आयात शुरू किया गया तब इन कंपनियों के माथे का शिकन खत्म हुआ. यहां तक कि भारत जिस हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन दवा का दुनिया भर में निर्यात कर रहा है, उसका भी करीब 75 फीसदी एपीआई चीन से ही आता है

ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अब भारत 53 रॉ मटेरियल और एपीआई के लिए 1.3 अरब डॉलर के निवेश से भारत में ही बनाने के प्लान पर काम करने का विचार बना है. लेकिन यह अभी दूर की कौड़ी है.