अमेरिका में कच्चा तेल शून्य डॉलर से भी नीचे! भारत के लिए क्यों है चिंताजनक

अमेरिकी वायदा बाजार में कच्चा तेल सोमवार को ऐतिहासिक रूप से लुढ़कते हुए नेगेटिव में चला गया, शून्य से 36 डॉलर नीचे. क्या है इसका मतलब और भारत को इससे क्या फर्क पड़ता है? आइए समझते हैं इस तेल का खेल...

  • अमेरिकी बाजार में कच्चा तेल शून्य डॉलर प्रति बैरल से भी कम
  • भारत के लिए लंदन का ब्रेंट क्रूड ज्यादा मायने रखता है
  • कच्चे तेल का टूटना इकोनॉमी के लिए अच्छी खबर नहीं
  • इसका भारतीय इकोनॉमी पर भी असर पड़ सकता है

क्या हुआ अमेरिकी बाजार में

सोमवार को अमे​रिका के वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट (WTI) मार्केट में कच्चा तेल मई के वायदा सौदों के लिए गिरते हुए माइनस 37.63 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गया था. सबसे पहले यह समझ लें कि इसका मतलब क्या है. यह रेट मौजूदा यानी तत्काल के हाजिर बाजार के लिए नहीं है. यह वायदा बाजार के लिए है.

असल में दुनियाभर में लॉकडाउन को देखते हुए जिन कारोबारियों ने मई के लिए वायदा सौदे किए हैं वे अब इसे लेने को तैयार नहीं हैं. उनके पास पहले से इतना तेल जमा पड़ा है जिसकी खपत नहीं हो रही है. इसलिए उत्पादक उन्हें अपने पास से रकम देने को तैयार हैं कि आप हमसे खर्च ले लो, लेकिन कच्चा तेल ले जाओ यानी सौदे को पूरा करो. ऐसा कच्चे तेल के इतिहास में पहली बार हुआ है.

इसके अगले महीने यानी जून के कॉन्ट्रैक्ट के लिए डब्लूटीआई क्रूड की कीमत 22.15 डॉलर प्रति बैरल थी. यानी एक महीने के ही भीतर वायदा सौदे में प्रति बैरल करीब 60 डॉलर का अंतर दिख रहा था.

भारत को क्या पड़ता है फर्क

अब इस बात को समझना जरूरी है कि वैसे अमेरिकी बाजार में कच्चा तेल अगर मुफ्त भी हो जाता है तो पेट्रोलियम कीमतों के लिहाज से भारत को बहुत फर्क क्यों नहीं पड़ता. असल में भारत में जो तेल आता है वह लंदन और खाड़ी देशों का एक मिश्रित पैकेज होता है जिसे इंडियन क्रूड बास्केट कहते हैं. इंडियन क्रूड बास्केट में करीब 80 फीसदी हिस्सा ओपेक देशों का और बाकी लंदन ब्रेंट क्रूड तथा अन्य का होता है. यही नहीं दुनिया के करीब 75 फसदी तेल डिमांड का रेट ब्रेंट क्रूड से तय होता है. यानी भारत के लिए ब्रेंट क्रूड का रेट महत्व रखता है, अमेरिकी क्रूड का नहीं.

सोमवार को जून के लिए ब्रेंट क्रूड का रेट करीब 26 डॉलर प्रति बैरल था, जबकि मई के लिए ब्रेंट क्रूड वायदा रेट 23 डॉलर प्रति बैरल के आसपास था. इसमें भी नरमी आई, लेकिन यह बहुत ज्यादा नहीं टूटा.

हाजिर बाजार यानी आज के भाव की बात करें तो ब्रेंट क्रूड करीब 25 डॉलर प्रति बैरल के आसपास चल रहा है और इंडियन बॉस्केट का क्रूड करीब 20 डॉलर प्रति बैरल के आसपास चल रहा है. यानी भारत के लिए कच्चा तेल अब भी 20 डॉलर प्रति बैलर के आसपास है.

डब्लूटीआई वह क्रूड ऑयल होता है, जिसे अमेरिका के कुंओं से निकाला जाता है. ढुलाई के लिहाज से इसे भारत लाना आसान नहीं होता. सबसे अच्छी क्वालिटी का कच्चा तेल ब्रेंट क्रूड माना जाता है. दूसरी तरफ, खाड़ी देशों का यानी दुबई/ओमार क्रूड ऑयल थोड़ी हल्की क्वालिटी का होता है, लेकिन यह एशियाई बाजारों में काफी लोकप्रिय है.

ब्रेंट क्रूड और WTI क्रूड की कीमत में अक्सर कम से कम 10 डॉलर प्रति बैरल का अंतर देखा जाता रहा है. इस कीमत पर ओपेक देशों का काफी असर होता है.

भारत में कैसे तय होती है पेट्रो​लियम की कीमत

जब भी कच्चा तेल गिरता है तो तमाम तरफ यह शोर मचने लगता है कि पेट्रोल-डीजल के रेट कम क्यों नहीं हो रहे. असल में भारत में पेट्रोल-डीजल के रेट क्रूड के ऊपर नीचे जाने से तय नहीं होते. पेट्रोलियम कंपनियां हर दिन दुनिया में पेट्रोल-डीजल का एवरेज रेट देखती हैं. यहां कई तरह के केंद्र और राज्य के टैक्स निश्चित हैं. भारतीय बॉस्केट के क्रूड रेट, अपने बहीखाते, पेट्रोलियम-डीजल के औसत इंटरनेशनल रेट आदि को ध्यान में रखते हुए पेट्रोलियम कंपनियां तेल का रेट तय करती हैं. इसलिए कच्चे तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव का हमारे यहां पेट्रोल-डीजल की कीमत पर तत्काल असर नहीं होता.

लेकिन बड़ी चिंता क्या है

एनर्जी एक्सपर्ट नरेंद्र तनेजा कहते हैं कि भारत या दुनिया की इकोनॉमी के लिए यह कोई शुभ संकेत नहीं है. उन्होंने कहा, 'कोरोना संकट की वजह से दुनिया की इकोनॉमी पस्त है. भारत में भी लॉकडाउन की वजह से पेट्रोलियम की मांग में भारी गिरावट आई है. ऐसे में कच्चे तेल की कीमतों का लगातार घटते जाना और इस स्तर पर चले जाना खाड़ी देशों की इकोनॉमी के डांवाडोल हो जाने का खतरा पैदा करता है. खाड़ी देशों की इकोनॉमी पूरी तरह से तेल पर निर्भर है. वहां करीब 80 लाख भारतीय काम करते हैं जो हर साल करीब 50 अरब डॉलर की रकम भारत भेजते हैं. वहां की इकोनॉमी गड़बड़ होने का मतलब है इस रोजगार पर संकट आना.'

 उन्होंने कहा, 'इसके अलावा भारत के निर्यात का बड़ा हिस्सा खाड़ी देशों को जाता है, तो वहां की इकोनॉमी के डांवाडोल होने का मतलब है भारत के निर्यात पर बड़ी चोट पड़ना और मौजूदा इकोनॉमी की जो हालत है उसे देखते हुए यह बड़ी चोट होगी.'