प्रमोशन में आरक्षण फिर बना मोदी सरकार के गले की फांस, जानें क्या है विवाद

सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी के बाद एक बार फिर पदोन्नति में आरक्षण को लेकर विवाद गहरा गया है. शीर्ष अदालत ने शु्क्रवार को अपनी टिप्पणी में कहा कि सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है और इसे लागू करना या न करना राज्य सरकारों के विवेक पर निर्भर करता है. कोर्ट ने कहा कि कोई अदालत एससी और एसटी वर्ग के लोगों को आरक्षण देने के आदेश जारी नहीं कर सकती. सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी को विपक्षी नेता आरक्षण पर खतरे के तौर पर देख रहे हैं और इसपर सियासी बवाल शुरू हो गया है.

संसद के बजट सत्र के बीच कोर्ट की ऐसी टिप्पणी पर घमासान तय है. अब विपक्षी दल मांग कर रहे हैं कि केंद्र सरकार शीर्ष अदालत की इस टिप्पणी पर पुनर्विचार याचिका दायर करे. विपक्षी ही क्यों बीजेपी के सहयोगी दल भी कोर्ट की टिप्पणी से सन्न हैं और इसे चुनौती देने की बात कर रहे हैं. कांग्रेस खुले तौर पर कोर्ट के फैसले को चुनौती देने की बात कह चुकी है.

कोर्ट ने क्यों की ऐसी टिप्पणी?

दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को उत्तराखंड हाई कोर्ट के उस आदेश को खारिज कर दिया जिसमें पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए राज्य सरकार के एससी और एसटी के आंकड़े जमा करने के निर्देश दिए गए थे. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि कोई भी राज्य सरकार प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है. हालांकि प्रमोशन में आरक्षण का विवाद नया नहीं है और समय-समय पर कोर्ट और राज्य सरकार इस बारे में अहम कदम उठा चुके हैं.

सबसे पहले साल 1973 में उत्तर प्रदेश सरकार ने पद्दोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था लागू की थी जिसके बाद 1992 में इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को रद्द कर दिया था. साथ ही सभी राज्यों को पांच साल के भीतर इस आरक्षण को खत्म करने के निर्देश दिए थे. फिर दो साल बाद यूपी में मुलायम सरकार ने इस आरक्षण को कोर्ट के अगले आदेश तक के लिए बढ़ा दिया था.

केंद्र ने किया संविधान संशोधन

हालांकि इस दिशा में 1995 का साल सबसे अहम रहा और 17 जून 1995 को केंद्र सरकार ने पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए 82वां संविधान संशोधन कर दिया. इस संशोधन के बाद राज्य सरकारों को प्रमोशन में आरक्षण देने का कानून अधिकार हासिल हो गया. इस फैसले के कुछ साल बाद 2002 में केंद्र की एनडीए सरकार ने प्रमोशन में आरक्षण के लिए संविधान में 85वां संशोधन किया और एससी-एसटी आरक्षण के लिए कोटे के साथ वरिष्ठता भी लागू कर दी.

उत्तर प्रदेश में 2005 की मुलायम सरकार ने प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था को ही रद्द कर दिया. फिर दो साल बाद जब राज्य में मायावती की सरकार बनी तो उन्होंने वरिष्ठता की शर्त के साथ पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को फिर से लागू कर दिया. हालांकि हाई कोर्ट में चुनौती मिलने के बाद 2011 में इस फैसले को रद्द कर दिया गया.

साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को सही ठहराया जिसके बाद यूपी की अखिलेश यादव सरकार ने प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था और वरिष्ठता को रद्द कर दिया. साल 2017 में केंद्र सरकार की अपील के बाद सुप्रीम कोर्ट ने नागराज मामले का फैसला संवैधानिक पीठ के हवाले कर दिया. 2018 में इस पीठ का फैसला आने तक सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि प्रमोशन में आरक्षण पर कोई रोक नहीं है और राज्य इसे अपने विवेक के आधार पर लागू कर सकते हैं.

क्या है नागराज मामला?

सुप्रीम कोर्ट अपने पूर्व के फैसले में कह चुका है कि संविधान में आरक्षण सिर्फ नियुक्ति के लिए है इसे पद्दोन्नति के लिए लागू नहीं किया जाना चाहिए. कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ कई राज्यों ने अपने यहां पद्दोन्नति में आरक्षण लागू किया और केंद्र में भी कोर्ट के फैसले के पलटने के लिए संविधान संशोधन किए गए. साल 2002 में एम नागराज केस के तहत इन संशोधन को चुनौती भी दी गई. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में 2006 में फैसला देते हुए कहा ये सारे संशोधन वैध ठहराया था.

सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में कहा था कि राज्य सरकार प्रमोशन में आरक्षण दे सकती हैं. लेकिन इसके लिए उसे तीन बातें जरूर ध्यान में रखनी चाहिए. वो तीन बिन्दु जिस समुदाय को ये लाभ दिया जा रहा है उसका प्रतिनिधित्व क्या वाकई बहुत कम है?, क्या उम्मीदवार को नियुक्ति में आरक्षण का लाभ लेने के बाद भी आरक्षण की ज़रूरत है?, एक जूनियर अफसर को सीनियर बनाने से काम पर कितना फर्क पड़ेगा? थीं.