तानसेन समारोह -संध्या की सुरसाधना में वायलिन, गायन और सितार का दिव्य संगम
ग्वालियर, -भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रतिष्ठित महोत्सव 101वे तानसेन समारोह की चौथे दिन की सांध्यकालीन संगीत सभा सुर, साधना और संवेदना का ऐसा आलोक बनकर प्रकट हुई, जिसमें कर्नाटक संगीत की लयात्मक वायलिन, घरानेदार गायिकी की गहन अनुभूति और काशी घराने के सितार की गंभीर गरिमा ने श्रोताओं को आत्मिक आनंद से भर दिया। यह संध्या केवल प्रस्तुतियों की श्रृंखला नहीं, बल्कि भारतीय शास्त्रीय संगीत की अखंड परंपरा, गुरु–शिष्य भाव और साधना की दिव्यता का सजीव उत्सव बन गई, जहां हर स्वर तानसेन को स्वरांजलि और हर ताल श्रद्धा का प्रतीक बनकर गूंजा।
मंगल ध्वनि से आरंभ : ध्रुपद में शिव आराधना
परंपरा के अनुरूप सांध्यकालीन सभा का शुभारंभ शंकर गांधर्व संगीत महाविद्यालय, ग्वालियर के विद्यार्थियों द्वारा ध्रुपद गायन से हुआ। राग शंकरा में चौताल की रचना “शंकर शिव महादेव” ने वातावरण को आध्यात्मिक ऊर्जा से आलोकित कर दिया। पखावज पर मुन्नालाल भट्ट, हारमोनियम पर टीकेंद्र नाथ चतुर्वेदी की संगत और स्वर संयोजन में रोहन पंडित ने प्रस्तुति को गरिमामय ऊंचाई प्रदान की।
हर संगीत परंपरा का साझा सम्मान
डॉ. मंजूनाथ ने कहा कि तानसेन समारोह वह पवित्र मंच है, जिसे हिंदुस्तानी, कर्नाटक और विश्व के हर संगीतज्ञ समान श्रद्धा से नमन करते हैं। प्रस्तुति का आरंभ राग बहुधारी से हुआ, जो आदिताल में निबद्ध त्यागराज की श्रीराम भक्ति से ओतप्रोत रचना थी। इसके बाद विलंबित आदिताल में राग षडमुखप्रिया और अंत में रागमाला की अद्भुत प्रस्तुति ने रसिकों को भावविभोर कर दिया। मृदंगम पर श्री के. साई गिरधर और खंजीरा पर जी. गुरु प्रसन्ना की ओजपूर्ण संगत ने जुगलबंदी को पूर्णता प्रदान की। यह प्रस्तुति तकनीकी दक्षता से कहीं आगे बढ़कर पीढ़ियों की साधना और संवेदना का उत्सव बन गई।
पिता–गुरु की रचना में भावों की अनुगूंज
वायलिन के पश्चात मंच पर सुविख्यात गायिका, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित सुश्री कलापिनी कोमकली का आगमन हुआ। उनकी खनकदार और प्रभावशाली आवाज ने राग मारू बिहाग में बड़े खयाल “रसिया हो न जाओ” के माध्यम से गंभीरता और श्रृंगार रस का सुंदर समन्वय रचा।
इसके बाद मध्य लय की बंदिश “सुनो सखी सैयां”—जो उनके पिता एवं गुरु पद्मभूषण कुमार गंधर्व की अमूल्य रचना है—ने सभा को भावुक कर दिया। द्रुत बंदिश “डरपत रैन दिन” की ऊर्जस्वी प्रस्तुति ने गायन को उत्कर्ष पर पहुंचाया। तबले पर श्री रामेंद्र सिंह सोलंकी और हारमोनियम पर श्री दीपक खसरावत की सधी हुई संगत ने प्रस्तुति को सशक्त आधार दिया।