जानिए 35A का इतिहास, आखिर जम्मू-कश्मीर में क्यों मचा है इस पर बवाल

जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने के अस्थायी प्रावधान आर्टिकल 35A को समाप्त करने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दाखिल जनहित याचिका में ये भी कहा गया है कि आर्टिकल 35A केवल भारतीय संविधान ही नहीं बल्कि कश्मीर की जनता के साथ भी सबसे बड़ा धोखा है.

जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक और सैन्य हलचलों के बीच आर्टिकल 35A को समाप्त करने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दाखिल जनहित याचिका पर भी चर्चा तेज हो गई है. दाखिल याचिका में कहा गया है कि आर्टिकल 35A केवल भारतीय संविधान ही नहीं बल्कि कश्मीर की जनता के साथ भी सबसे बड़ा धोखा है.

सुप्रीम कोर्ट में यह जनहित याचिका दाखिल करने वाले वकील अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि आर्टिकल 35A को संविधान संशोधन करने वाले अनुच्छेद 368 में निर्धारित प्रक्रियाओं का पालन करके नहीं जोड़ा गया बल्कि इसे तब की सरकार ने अवैध तरीके से चिपकाया था. संविधान में संशोधन का अधिकार केवल संसद को है. आर्टिकल 35A न केवल आर्टिकल 368 में निर्धारित संवैधानिक प्रक्रियाओं का उल्लंघन करता है, बल्कि भारत के संविधान की मूल संरचना के भी खिलाफ है. संविधान में कोई भी आर्टिकल जोड़ना या घटाना केवल संसद द्वारा अनुच्छेद 368 में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही किया जा सकता है. जबकि आर्टिकल 35A को संसद के समक्ष आजतक कभी प्रस्तुत ही नहीं किया गया.

इससे यह भी साफ है कि आर्टिकल 368 के तहत संसद की संविधान संशोधन की शक्ति को तब की सरकार ने आर्टिकल 35A के मामले में दरकिनार कर दिया था.

याचिका में ये दलील भी है कि आर्टिकल 35A के जरिए, जन्म के आधार पर किया गया वर्गीकरण आर्टिकल 14 का उल्लंघन है. यह कानून के समक्ष हरेक नागरिक की समानता और संविधान की मूल संरचना के खिलाफ है. आर्टिकल 35A के अनुसार गैर-निवासी नागरिकों के पास जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासियों के समान अधिकार और विशेषाधिकार नहीं हो सकते हैं.

आर्टिकल 35A एक महिला को उसकी मर्जी के पुरुष के साथ शादी करने के बाद उसके बच्चों को जायजाद में हक न देकर उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है. अगर कोई महिला किसी ऐसे पुरुष से शादी करती है जिसके पास कश्मीर का स्थायी निवास प्रमाण पत्र न हो तो उसके बच्चों को न तो स्थायी निवास प्रमाण पत्र मिलता है और न ही जायजाद में हिस्सा. उन्हें जायजाद में हिस्सा पाने के लिए उपयुक्त नहीं समझा जाता है भले ही महिला के पास कश्मीर की नागरिकता हो.

इस अनुच्छेद से उन श्रमिकों और मूल निवासियों जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की भी खुली छूट मिलती है जो कई पीढ़ियों से कश्मीर में निवास कर रहे हैं. जिन दलितों और वाल्मीकियों को 1950-60 के बीच जम्मू-कश्मीर राज्य में लाया गया था, उन्हें इस शर्त पर स्थायी निवास प्रमाण पत्र दिया गया था कि वे और उनकी आने वाली पीढ़ियां राज्य में तभी रह सकती हैं, जब वे मैला ढोने वाले बने रहें. आज राज्य में छह दशक की सेवा करने के बाद भी उन मैला ढोने वालों के बच्चे सफाई कर्मचारी हैं और उन्हें कोई और पेशा चुनने का अधिकार नहीं है.

संपत्ति के स्वामित्व प्रतिबंधों के कारण औद्योगिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र को अत्यधिक क्षति पहुंच रही है. अच्छे डॉक्टर इंजीनियर प्रोफेसर कश्मीर में नहीं आते. कश्मीर के बाहर के बच्चों को राजकीय कॉलेजों में प्रवेश नहीं मिलता है. यह पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के अधिकारों को भी कम करता है. वे भारत के नागरिक तो हैं लेकिन कश्मीर के गैर-स्थायी निवासी होने के नाते वे जम्मू कश्मीर के स्थायी निवासियों द्वारा प्राप्त किए गए मूल अधिकारों और विशेषाधिकारों से वंचित हैं.

याचिका में उपाध्याय की दलील है कि आर्टिकल 35A राज्य सरकार को एक अनुचित आधार पर भारत के नागरिकों के बीच भेदभाव करने की खुली आजादी देता है. इसमें एक के अधिकारों को रौंदते हुए दूसरे को अधिकार देने में तरजीह दी जाती है. गैर-निवासियों को संपत्ति खरीदने, सरकारी नौकरी पाने या स्थानीय चुनाव में वोट देने से वर्जित किया जाता है. भारत के राष्ट्रपति ने एक कार्यकारी आदेश द्वारा संविधान में आर्टिकल 35A को जोड़ा, हालांकि अनुच्छेद 370 राष्ट्रपति को भारत के संविधान में संशोधन करने के लिए विधायी शक्तियां प्रदान नहीं करता है. आर्टिकल 35A न केवल कानून द्वारा स्थापित संवैधानिक प्रक्रियाओं का उल्लंघन करता है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 19, 21 में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का भी हनन करता है.

आर्टिकल 35A मनमाने तरीके से थोपा गया है. यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 19 और 21 में दिए गए समानता, रोजगार, समान अवसर, व्यापार और व्यवसाय, संगठन बनाने, सूचना पाने, विवाह, निजता, आश्रय पाने, स्वास्थ्य और शिक्षा के मूल अधिकारों का उल्लघंन करता है. इससे साफ है कि आर्टिकल 35A केवल भारतीय संविधान ही नहीं बल्कि कश्मीर की जनता के साथ सबसे बड़ा धोखा है.

आखिर क्या है आर्टिकल 35A?

-आर्टिकल 35A से जम्मू कश्मीर सरकार को यह अधिकार मिला है कि वह किसे अपना स्थायी निवासी माने और किसे नहीं.

-जम्मू कश्मीर सरकार उन लोगों को स्थायी निवासी मानती है जो 14 मई 1954 से पहले कश्मीर में बस गए थे.

-कश्मीर के स्थायी निवासियों को जमीन खरीदने, रोजगार पाने और सरकारी योजनाओं में विशेष अधिकार मिला है.

-देश के किसी दूसरे राज्य का निवासी जम्मू-कश्मीर में जाकर स्थायी निवासी के तौर पर नहीं रह सकता.

-दूसरे राज्यों के निवासी ना कश्मीर में जमीन खरीद सकते हैं, ना राज्य सरकार उन्हें नौकरी दे सकती है.

-अगर जम्मू-कश्मीर की कोई महिला भारत के किसी अन्य राज्य के व्यक्ति से शादी कर ले तो उसके और उसके बच्चों के प्रॉपर्टी राइट छीन लिए जाते हैं. उमर अब्दुल्ला का निकाह गैर कश्मीरी महिला से हुआ है लेकिन उनके बच्चों को सारे अधिकार हासिल हैं. उमर अब्दुल्ला की बहन सारा अब्दुल्ला का निकाह गैर कश्मीरी व्यक्ति से होने के कारण संपत्ति के अधिकार से वह वंचित कर दी गई हैं.

संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत ही जोड़ा गया था अनुच्छेद 35A

-अनुच्छेद 35A की वजह से जम्मू कश्मीर के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता है.

-अनुच्छेद 370 की वजह से जम्मू कश्मीर में अलग झंडा और अलग संविधान चलता है.

-आर्टिकल 370 के कारण कश्मीर में विधानसभा का कार्यकाल 6 साल का होता है, जबकि अन्य राज्यों में 5 साल का होता है.

-आर्टिकल 370 के कारण भारतीय संसद के पास जम्मू-कश्मीर को लेकर कानून बनाने के अधिकार बहुत सीमित हैं.

-संसद में पास कानून जम्मू कश्मीर में तुरंत लागू नहीं होते हैं. शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, मनी लांड्रिंग विरोधी कानून, कालाधन विरोधी कानून और भ्रष्टाचार विरोधी कानून कश्मीर में लागू नहीं है. इससे यहां ना तो आरक्षण मिलता है, ना ही न्यूनतम वेतन का कानून लागू होता है.

क्या है इसका कानूनी पहलू?

2014 में वी द सिटिजंस नाम के एक NGO ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई थी लेकिन केंद्र और राज्य सरकार ने अपना जवाब आजतक दाखिल नहीं किया. इस बीच चारु खन्ना, लड्डा राम, अश्विनी उपाध्याय और मेजर रमेश उपाध्याय ने भी आर्टिकल 35A को सुप्रीम कोर्ट में चैलेन्ज किया. इस समय आर्टिकल 35A के खिलाफ कुल 6 जनहित याचिकाएं लंबित हैं.

अश्विनी उपाध्याय ने आर्टिकल 35A के अतिरिक्त एक अन्य याचिका दाखिल कर आर्टिकल 370 की वैधता को भी चुनौती दी है. विजय लक्ष्मी झा की याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में 2017 से लंबित है लेकिन केंद्र और राज्य सरकार ने अभी तक अपना जवाब दाखिल नहीं किया है. सभी याचिकाओं में यह दलील दी गई है कि संविधान बनाते समय कश्मीर को विशेष दर्जे की बात नहीं की गई थी. यहां तक कि संविधान का ड्राफ्ट बनाने वाली संविधान सभा में चार सदस्य खुद कश्मीर से थे.

अनुच्छेद 370 अस्थायी प्रावधान है जो हालात सामान्य होने तक के लिए बनाया गया था. संविधान निर्माताओं ने यह कभी नहीं सोचा था कि आर्टिकल 370 के नाम पर 35A जैसा प्रावधान जोड़ा जाएगा. आर्टिकल 35A "एक विधान एक संविधान एक राष्ट्रगान एक निशान" की भावना पर चोट करता है. जम्मू कश्मीर में दूसरे राज्यों के नागरिकों को समान अधिकार न होना संविधान के मूल भावना के खिलाफ है. आर्टिकल 35A का इतिहास तस्दीक करता है कि इसे राष्ट्रपति के एक आदेश से संविधान में 1954 में जोड़ा गया था. यह आदेश तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की कैबिनेट की सलाह पर जारी हुआ था.

इससे दो साल पहले 1952 में नेहरू और शेख अब्दुल्ला का दिल्ली समझौता हुआ था. इसके तहत भारतीय नागरिकता जम्मू-कश्मीर के राज्य के विषयों में लागू करने की बात थी. लेकिन आर्टिकल 35A को खास तौर पर कश्मीर के स्पेशल स्टेटस को दिखाने के लिए लाया गया. अब दलील यह दी जा रही है कि यह राष्ट्रपति के आदेश वाला आर्टिकल 35A खत्म होना चाहिए. क्योंकि इस पर संसद में कोई चर्चा और बहस नहीं हुई. संसद को बताए बिना आर्टिकल 35A को एक सामान्य आदेश के जरिए संविधान में जोड़ दिया गया.